उत्तर गुजरात फिर से विनाशकारी बाढ़ की चपेट में आया है, जिसमें बनासकांठा और पाटण जिले सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। सुइगाम, वाव, थराद, भाभर तालुका के निम्न-भूतल गांव पानी में डूब गए, जिससे हजारों लोग फंसे और पूरे समुदाय जलमग्न घरों और प्रभावित आजीविकाओं से जूझते रहे। लगातार ४८ घंटे तक तेज बारिश हुई थी और साथ साथ तेज हवा भी चली थी।इस क्षेत्र की विशेष भौगोलिक स्थिति, जो रेगिस्तान के किनारे स्थित है, निम्न-भूमि वाले क्षेत्रों में पानी के ठहरने का कारण बनती है, जिससे भारी बारिश लंबे समय तक बाढ़ का रूप ले लेती है। जलवायु परिवर्तन ने मानसून की तीव्रता और अनियमितता को और बढ़ा दिया है, जिससे पहले जो बारिशें सामान्यत: नियंत्रित होती थीं, अब विनाशकारी रूप ले रही हैं।
हजारों परिवारों को अपने घर छोड़कर राहत शिविरों में जाना पड़ा, जहाँ भोजन, स्वच्छ पेयजल और चिकित्सा सेवाएं सीमित थीं। बुजुर्ग, बच्चे और कमजोर लोग विशेष रूप से प्रभावित हुए। बाढ़ के कारन पशुओं के लिए चारे की अत्यंत भारी किल्लत हो गई है। बाढ़ के पूर्व अरण्डी (केस्टर) की फसल बहोत अच्छी थी और किसान अच्छी पैदावार की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन लगातार बारिश और बाढ़ के कारण खड़ी हुई सारी फसलें नष्ट हो गईं, जिससे खरीफ का पूरा मौसम बर्बाद हो गया। खेतों में पानी लंबे समय तक ठहरा रहेगा, जिससे रबी फ़सलोंकी खेती करनेमें कठिनाई होगी। यह स्थिति न केवल किसानों की आजीविका पर भारी असर डालेगी, बल्कि पशुपालन पर भी संकट खड़ा कर रही है, बड़ी संख्या में पशु मर गए जिससे पशुपालन व्यवसाय पर निर्भर परिवारोंकी आय पर बुरा प्रभाव पड़ा है।कई छोटे और सीमांत किसानों के लिए ये नुकसान खाद्य सुरक्षा और आर्थिक जीवन दोनों के लिए खतरा बन गए। बाढ़ प्रभावित इलाकोंमें रहने वाले सभीको नुकशान हुआ है। बाढ़ ने सड़कों, बिजली और जल आपूर्ति को प्रभावित किया, जिससे समुदायों को अलग-थलग कर दिया और सहायता पहुँचाने में कठिनाई हुई। बाढ़ के एक सप्ताह बाद मैंने सुइगाम, वाव और थराद की मुलाकात लीं और लोगो से बातचित के दौरान मुझे पता चला कि यहाँ के लोग रेसिलिएंट है, फिर से खड़ा होनेका जज्बा रखते है, ऐसी स्थितिमें उन्हें प्रसाशन से उचित मदद मिलनी चाहिए।
इन निम्न-भूमि वाले रेगिस्तान के किनारे वाले क्षेत्रों में लंबी अवधि तक पानी जमने का एक विशेष चिंता का विषय है—मिट्टी और पानी की क्षारीयता बढ़ना। बाढ़ का पानी, जो वर्षों के अवरोध और प्राकृतिक स्थलाकृति के कारण जमी रहती है, पीछे खारापन छोड़ देता है। यह घटना 2015 और 2017 की पिछली बड़ी बाढ़ के बाद देखी गई थी, जिससे मिट्टी की उपजाऊ शक्ति कम हो गई और भविष्य की फसल की उत्पादकता प्रभावित होने लगी, जिससे किसानों पर आर्थिक बोझ लंबी अवधि तक बना रहा और पर्यावरणीय चुनौतियां भी बढ़ गईं।
राहत कार्य, हालांकि तेज थे, लेकिन चुनौतियों से भरे थे। राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल (GSDMA) और राष्र्टीय आपदा प्रबंधन बल (NDRM), स्थानीय प्रशासन और स्वयंसेवकों ने व्यापक बचाव और राहत गतिविधियाँ शुरू कीं, लोगों को बाढ़ प्रभावित गांवों से निकालकर अस्थायी आश्रयों में स्थानांतरित किया। भोजन पैकेट, चिकित्सा सहायता और आपातकालीन आपूर्ति वितरित की गई, फिर भी दूरदराज के गांवों तक पहुँच जलभराव वाली सड़कों के कारण देरी से हुई। राहत कार्यों ने मजबूत पूर्व चेतावनी प्रणाली, समन्वित निकासी योजना और बार-बार बाढ़ का सामना कर सकने वाले बुनियादी ढांचे की आवश्यकता को उजागर किया।
2015 और 2017 के समान अनुभवों के बावजूद, प्रतीत होता है कि सबक पर्याप्त रूप से लागू नहीं हुए। निम्न-भूमि वाले क्षेत्र अब भी संवेदनशील हैं, बार-बार विनाश को रोकने के लिए व्यापक उपाय अत्यंत आवश्यक हैं। बनासकांठा और पाटण जिले के किसानों को फसल और पशुधन के नुकसान की भरपाई के लिए तुरंत वित्तीय राहत पैकेज प्रदान किए जाने चाहिए, और दीर्घकालिक उपाय जैसे सही मायने में फसल बीमा, बाढ़-प्रतिरोधी कृषि प्रथाएँ, मिट्टी और जल क्षारीयता प्रबंधन, और सिंचाई अवसंरचना में सुधार लागू किए जाने चाहिए। समुदाय को तैयार करने वाले कार्यक्रम, बेहतर जल निकासी प्रणाली महत्वपूर्ण हैं।
2025 की उत्तर गुजरात की बाढ़ इस बात की कठोर याद दिलाती है कि जलवायु संवेदनशीलता मानव योजना और शासन के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। तत्काल राहत और प्रणालीगत सुधारों पर ध्यान न दिया गया, तो इन बाढ़ों की याद लगातार नुकसान के चक्र का हिस्सा बन सकती है। सरकार को प्रभावित परिवारों, विशेषकर किसानों, को समय पर सहायता सुनिश्चित करनी चाहिए और दीर्घकालिक रूप से आजीविकाओं और समुदायों की सुरक्षा के लिए लचीली अवसंरचना, मिट्टी और जल प्रबंधन, और बाढ़ निवारण रणनीतियों में निवेश करना चाहिए।

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